2013 के कुछ चर्चित घोटाले

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सुशासन और भ्रष्टाचार
यह भ्रष्टाचार के खिलाफ साल-दर-साल बढ़ती जन-जागरूकता का ही नतीजा है कि केंद्र सरकार इस साल के आखिर में भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए लोकपाल बिल पारित कराने पर मजबूर हो गयी. राहत की बात यह भी रही कि बीते कुछ वर्षो की तरह इस साल कोई ‘सबसे बड़ा घोटाला’ सामने नहीं आया.
हालांकि देशवासियों को भ्रष्टाचार कम होने का इंतजार अब भी है. सुशासन और भ्रष्टाचार के पैमाने पर कैसा रहा साल 2013, नजर डाल रहा है यह विशेष आयोजन
देश में भ्रष्टाचार पिछले कुछ सालों में इस कदर बढ़ चुका है कि अब यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिदगी का विषय बन रहा है. हालांकि इस मामले में एक बड़ा बदलाव यह आया है कि भ्रष्टाचार का दंश ङोल रहा देश का आम आदमी अब इसके खिलाफ आवाज उठाने लगा है.
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोगों में जागरूकता बढ़ने में ‘सूचना का अधिकार’ (आरटीआइ) कानून की बड़ी भूमिका रही है. हालांकि हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण में एक और खास बात सामने आयी है, भ्रष्टाचार के खिलाफ आम लोगों की भागीदारी को लेकर. भारत में अधिकतर लोग यह तो मानते हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगना चाहिए.
लेकिन इस प्रक्रिया में आम आदमी अपनी पूरी भागीदारी निभा नहीं रहा है. फिर भी, यह भ्रष्टाचार के खिलाफ बने जन दबाव का ही नतीजा है कि इस साल के आखिरी महीने में सरकार भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल कानून को संसद से पारित कराने पर मजबूर हुई और विपक्षी दलों को भी अपना रुख बदलना पड़ा.
पिछले कुछ साल घपलों-घोटालों के रिकार्डस की चर्चा के बीच बीते था. इस लिहाज से यह राहत की बात कही जायेगी कि इस साल कोई नया ‘सबसे बड़ा घोटाला’ सामने नहीं आया, लेकिन भ्रष्टाचार के पैमाने पर देश में गवर्नेंस की स्थिति सुधरी हो, यह कहना भी मुश्किल है. केंद्रीय सतर्कता आयोग का कहना है कि देश में तकरीबन 1.8 अरब डॉलर की रकम अब तक घोटालों की भेंट चढ़ चुकी है.
भ्रष्टाचार रोकने में केंद्र के साथ-साथ ज्यादातर राज्य सरकारें विफल रही हैं. एक सव्रे के मुताबिक भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए लोग लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया से सबसे अधिक आशान्वित हैं.
लचर एवं लंबी कानूनी प्रक्रिया
इसी वर्ष बीबीसी ने लोगों के बीच किये गये एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 66 प्रतिशत लोग भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी समस्या मानते हैं और आम लोगों की चर्चा का मुख्य विषय भ्रष्टाचार रहता है. हालांकि आम लोगों की जागरूकता के बावजूद भ्रष्टाचार के मामले कम नहीं हो रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि देश में इस संबंध में अनेक कायदे-कानून तथा कानून का शासन होने के बावजूद भ्रष्टाचार बढ़ा है.
दरअसल, हो यह रहा है कि भ्रष्टाचारी इन्हीं कायदे-कानून की कमजोरियों का सहारा लेकर भ्रष्ट आचरण अपनाते हैं और जांच एवं न्याय की लंबी प्रक्रिया चलती रहती है. इसमें कई बार दोषी भी कानूनी दावंपेच का सहारा लेकर बच जाते हैं. इसके लिए न्यायिक सुधार की जरूरत भी वर्षो से महसूस की जा रही है.
विशेषज्ञों का मानना है कि सुशासन ही भ्रष्टाचार रोकने का मूलमंत्र है. इसलिए सुशासन का केवल प्रचार नहीं होना चाहिए, राजनेता एवं अधिकारियों को भ्रष्टाचार रोकने के प्रति अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति भी दिखानी चाहिए. विकास हेतु भ्रष्टाचार पर अंकुश जरूरी है, जो सुशासन से ही मुमकिन है. देखा यह गया है कि जनप्रतिनिधियों को मिलनेवाले फंड के माध्यम से संचालित होनेवाली स्कीमें राजनीतिक स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार का एक बड़ा माध्यम हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि आज जरूरत इस बात की है कि इस तरह की योजनाओं को बंद कर दिया जाए. भ्रष्टाचार से सख्ती से निबटने के लिए पिछले करीब चार दशकों से लोकपाल के गठन की मांग हो रही है.
हाल ही में इसे लोकसभा और राज्यसभा, यानी संसद के दोनों ही सदनों में पारित कर दिया गया है. उम्मीद की जा रही है कि 2014 से लोकपाल देश में भ्रष्टाचार खत्म करने में एक बड़ी भूमिका निभायेगा.
भ्रष्टाचार रोकने की बाधाएं
बाल्मीकि प्रसाद सिंह की किताब ‘द चैलेंज ऑफ गुड गवर्नेस इन इंडिया : नीड फॉर इनोवेटिव एप्रोचेज’ के मुताबिक, भारत में भ्रष्टाचार के उच्च स्तर को व्यापक रूप से शासन व्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक बड़ी बाधा के तौर पर माना गया है. भले ही इनसान की लालची प्रवृत्ति भ्रष्टाचार का वाहक हो, लेकिन दंड देने का ढांचा सही न होने और लचर प्रणाली के चलते देश में इसे बढ़ावा मिलता है.
नियंत्रण की जटिल और गैर-पारदरशी प्रणाली, सेवा प्रदाता के तौर पर सरकार का एकाधिकार, अविकसित कानूनी ढांचा, जानकारी का अभाव और नागरिकों का इन समस्याओं से निबटने में कमजोर होने के चलते देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है. इन सभी समस्याओं से निजात के लिए नागरिकों में जागरूकता अभियान को मजबूती प्रदान करने और भ्रष्टाचार-निरोधी मौजूदा एजेंसियों को ज्यादा सशक्त बनाने की जरूरत है.
इस संबंध में ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ को उल्लेखनीय माना जा सकता है. इस अधिनियम के प्रावधान से जन-जागरूकता से जुड़े कार्यक्रमों को लोगों के बीच ले जाने में सहायता मिली है. फाइलों के प्रबंधन में मौलिक सुधार, सरकारी नियमों और अधिनियमों, सार्वजनिक खर्चो के प्रावधान की समीक्षा के माध्यम से सेवा प्रदाताओं को संबंधित नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता है.
अंतरराष्ट्रीय सूचकांक में भारत की स्थिति
दुनियाभर के देशों में भ्रष्टाचार की स्थितियों का आकलन करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने अपनी हालिया रिपोर्ट में भारत में इसकी भयावह स्थिति का जिक्र किया है. संस्था की ओर से इस साल जारी रिपोर्ट के मुताबिक, भ्रष्टाचार के मामले में भारत दुनिया के 176 देशों में 94वें स्थान पर आता है.
हालांकि, इस वर्ष शासन के स्तर पर कोई बड़ा भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया है, लेकिन ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि यह बिलकुल खत्म हो गया है. इस सूची में चीन 80वें, पाकिस्तान 127वें और श्रीलंका 91वें स्थान पर है. सूची में भारत को शून्य से 100 के पैमाने पर 36 अंक प्राप्त हुए हैं. इस सूची में डेनमार्क और न्यूजीलैंड 91 अंक के साथ सबसे कम भ्रष्ट देशों में शीर्ष स्थान पर हैं.
इसमें फिनलैंड 89 अंकों के साथ तीसरे स्थान पर है. मालूम हो कि  ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल वर्ष 1995 से भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक जारी करता है. यह एक समग्र सूचक है, जो दुनियाभर के विभिन्न देशों में सार्वजनिक क्षेत्र में हो रहे भ्रष्टाचार को दर्शाता है.
भ्रष्टाचार का आकलन करनेवाली इस संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है. भारत में 70 फीसदी लोगों का मानना है कि पिछले दो साल में भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है. हालांकि, पिछले वर्षो सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में विशाल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है.
राजनीतिक दल स्वयं को आरटीआइ कानून के दायरे से भी अलग रखना चाहती हैं. भारत में भ्रष्टाचार निम्न स्तर से आगे चल कर उच्चस्तर पर व्यापक हुआ है. सरकारी स्तर पर जिस तरह के घोटाले हो रहे हैं, उससे लगता है कि हमने लाखों के नहीं, अब अरबों-खरबों रुपये के भ्रष्टाचार में कीर्तिमान कायम किये हैं.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार नापने के अपने मानक हैं, पर भारतीय परिदृश्य में भ्रष्टाचार को कम होते हुए स्वीकार करना थोड़ा मुश्किल लगता है. यह सही है कि आज पूरी दुनिया में सार्वजनिक क्षेत्र खासकर राजनीतिक दलों, पुलिस और न्यायिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार दुनियाभर में एक बड़ी चुनौती है. इस बारे में एजेंसी का कहना है कि सार्वजनिक संस्थानों को अपने काम, अधिकारों और निर्णयों के बारे में ज्यादा खुला होने की जरूरत है.
भ्रष्टाचार की जांच पड़ताल और उस पर कार्रवाई कठिन काम है. सोचनेवाली अहम बात यह है कि हम यह स्वीकार करते हैं कि देश में भ्रष्टाचार तो है. इस ओर ध्यान भी जाता है और हम यह भी समझते हैं कि उसे रोकनेवाले भी हम ही हैं, लेकिन कुछ खास कर नहीं पाते. भारत के राजनीतिक-सामाजिक माहौल की बात करें, तो अब भ्रष्टाचार के विरोध में समाज का हर तबका खड़ा दिखाई देता है. यह भी सच है कि भ्रष्टाचार के संबंध में अपने विचार प्रकट करना एक बात है और इसको हटाने के लिए वास्तव में कुछ करना अलग बात है.
- जागरूक हो रही है जनता
अनुपमा झा
कार्यकारी निदेशक, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया
ले ही इस वर्ष भी छोटे-छोटे बहुत से घोटाले सामने आये हों, लेकिन कोई बड़ा घोटाला नहीं देखने में आया है. इससे कई निहितार्थ निकलते हैं. पिछले दो-तीन वर्षो के दौरान देशभर में आम जनता के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूकता बढ़ी है. देश के अनेक इलाकों में भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान की मुहिम छेड़ी गयी है.
गवर्नेस (सुशासन) में सुधार और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए लोग अब खुल कर आवाज उठा रहे हैं. हाल के वर्षो में इन मुद्दों पर कई आंदोलन भी हुए हैं. इसमें मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों की भी बड़ी भूमिका रही है.
अब तक होता यह रहा है कि तमाम राजनीतिक दल और नौकरशाह यह समझते थे कि वे कुछ भी कर सकते हैं और जनता मूकदर्शक बनी रहेगी, लेकिन इस वर्ष इस प्रवृत्ति में काफी बदलाव देखा गया है. लोगों ने भ्रष्टाचार का व्यापक विरोध शुरू कर दिया है, कि अब यह सब नहीं चलेगा.
ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर के एक सर्वे में बताया गया है कि देश की आम जनता का राजनेताओं पर से विश्वास कम हुआ है. लोगों का मानना है कि भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनेता हैं. सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, नेताओं के बाद भ्रष्टाचार में नौकरशाह और कानून बनानेवाले आते हैं.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ओर से किये गये सर्वेक्षण के मुताबिक, गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करनेवाले लोगों को सालाना नौ अरब रुपये घूस देना पड़ता है. वह भी अपनी मूलभूत सुविधाओं से संबंधित जरूरतों को पूरा करने के लिए. यानी जो चीजें उन्हें मुफ्त मिलनी चाहिए, उनके लिए उन्हें इतनी बड़ी रकम का भुगतान करना होता है. सुना तो यहां तक गया है कि गरीबों को अस्पताल में भर्ती अपने बीमार संबंधियों के लिए खून की जरूरत होने पर उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों को घूस देना पड़ता है.
स्वच्छ प्रशासन की मांग
देखा जाय तो लोगों को स्वच्छ प्रशासन मुहैया कराना चुनाव के लिहाज से एक बड़ा मुद्दा है. राजनेताओं के साथ एडमिनिस्ट्रेशन को भी इस पर ध्यान देना होगा. इसी वर्ष हुए ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले पर नजर डालें, तो इसमें सरकार की ओर से व्यावहारिक अनियमितता बरती गयी है.
दरअसल, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने सरकार को पूर्व में ‘इंटेग्रिटी पैक्ट’ की अवधारणा लागू करने का प्रस्ताव दिया था. सैद्धांतिक रूप से तो इसे मान लिया गया, लेकिन इस मामले में इसे व्यावहारिक रूप से कार्यान्वित नहीं किया गया. रक्षा विभाग ने इस प्रस्ताव को मानने की सैद्धांतिक सहमति भी दे दी, लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसे लागू नहीं किया. मालूम हो कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगानेवाली देश की सरकारी संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भी यह प्रस्ताव अच्छा लगा था.
दरअसल, इंटीग्रिटी पैक्ट की अवधारणा को सार्वजनिक ठेकों में भ्रष्टाचार खत्म करने के मकसद से 1990 के दशक में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने विकसित किया था. यह पैक्ट सार्वजनिक ठेकों में सरकार या सरकारी विभागों (राष्ट्रीय, राज्य या स्थानीय स्तर पर) और ठेकों की बोली लगानेवालों के बीच का एक समझौता है.
इसमें दोनों ही पक्षों को इस संदर्भ में प्रतिबद्धता दर्शानी होती है कि वे न तो घूस लेंगे और न देंगे. साथ ही, इस बारे में प्रतिबद्धता जतानी होती है कि अन्य प्रतियोगियों से उनकी किसी तरह की टकराहट नहीं है.
कई देशों में यह पैक्ट अपनाया जा रहा है. सिविल सोसायटी के नेतृत्व में एक स्वतंत्र निगरानी प्रणाली के माध्यम से इसे ज्यादा प्रभावी बनाया जा सकता है. इससे सार्वजनिक स्नेतों के संदर्भ में ज्यादा से ज्यादा जवाबदेही तय की जा सकती है.
कानूनों का सही कार्यान्वयन जरूरी
हमारे देश में कानून तो बहुत से हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है. कथनी और करनी में काफी फर्क देखा जा रहा है. शासन व्यवस्था में आंतरिक नियंत्रण जरूरी है. भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए निजी क्षेत्र को भी आगे आना होगा. मीडिया और सिविल सोसायटी तो पहले से ही इस कार्य में जुटी हुई है.
निजी क्षेत्र को अकसर शिकायत रहती है कि उन्हें भ्रष्टाचार का शिकार बनाया जाता है, पर अब उन्हें भी आगे आना होगा. अपनी ओर से उन्हें पूरी सक्रियता से कोशिश करनी होगी, ताकि सार्वजनिक क्षेत्र उन्हें भ्रष्टाचार का शिकार न बना सकें.
जहां तक भ्रष्टाचार के पैमाने पर गवर्नेस की स्थिति में सुधार की बात है तो इस दिशा में इस वर्ष कुछ हद तक सुधार हुआ है. हालांकि, देश में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है कि एक साल में इससे निबटना मुमकिन नहीं है. हां, इस वर्ष एक अच्छी बात जरूर हुई है कि लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूकता बढ़ी है. सुशासन की ओर इसे पहला कदम तो माना ही जा सकता है.
अब जरूरत इस बात की है कि सरकार के कार्यक्रमों में भागीदारी निभानेवाली सभी एजेंसियां (सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठन, मीडिया, सिविल सोसायटी आदि) जागरूक हों. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में हम आगे बढ़ेंगे.
आप की जीत में भ्रष्टाचार अहम मुद्दा
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ की जीत को इस संबंध में एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा सकता है. भले ही इस पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिला हो, लेकिन इतना जरूर साबित हुआ कि जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ किस हद तक अपनी राय स्पष्ट तौर पर जाहिर की है. केजरीवाल के घोषणापत्र में भ्रष्टाचार एक अहम मुद्दा रहा है और जनता ने विकल्प मिलते ही मौजूदा राजनीति करनेवाले तमाम बड़े नेताओं को सबक सिखाया है. दरअसल जनता भ्रष्टाचारियों को अब किसी भी कीमत पर बख्शना नहीं चाहती.
इस वर्ष इनमें हुई सुधार प्रक्रियाओं के चलते 2014 के लिए भी कुछ स्पष्ट संकेत छिपे हैं. नौकरशाहों और राजनेताओं को अब सजग हो जाना होगा. वे यह न समङों कि अब वे कुछ भी करते रहेंगे और लोग उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे.
उन्हें अब इस मानसिकता को बदलना होगा कि पहले से जो चीजें चली आ रही हैं, उसे ही वे बरकरार रखेंगे. उन्हें अब लोगों की ताकत को समझना होगा. यह भी तय है कि चुनाव में जीत दर्ज करने के लिए अब राजनीतिक दलों को अपने एजेंडे में व्यापक बदलाव करना होगा. भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाना होगा.
दिल्ली के हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी उन्हें यह सबक मिला है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले साल यह सबक राजनीतिक दलों को इस दिशा में आत्म-मंथन करने पर मजबूर करेगा. अब वे जनता से केवल वादेभर नहीं कर सकते हैं. उन्हें उन वादों को निभाना भी होगा. उन्हें यह समझना होगा कि जातीयता, सांप्रदायिकता आदि मुद्दों पर अब वे चुनाव नहीं जीत सकते. साथ ही, सुशासन और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता जागरूक हो चुकी है और अब उसे बरगलाया नहीं जा सकता.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
- 2013 के कुछ चर्चित घोटाले
रेलवे प्रोन्नति घोटाला
तत्कालीन रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के कार्यकाल में इस वर्ष यह घोटाला सामने आया था. रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भांजे विजय सिंगला को केंद्रीय जांच ब्यूरो ने इसी वर्ष मई में चंडीगढ़ से गिरफ्तार किया था. सिंगला पर एक उच्च-स्तरीय अधिकारी से घूस की रकम लेकर उसे रेलवे बोर्ड में प्रोन्नति करने की सिफारिश करवाने का आरोप लगाया गया था.
बताया गया था कि पदानुक्रम के मुताबिक दो अन्य अधिकारियों को दरकिनार करते हुए किसी अन्य अधिकारी को प्रोन्नति दिये जाने की सिफारिश की गयी थी. हालांकि, रेल मंत्री ने इस आरोप को भले ही स्वीकार नहीं किया हो, लेकिन इस घूस कांड के बाद पवन बंसल को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
शारदा ग्रुप वित्तीय घोटाला
शारदा ग्रुप नामक एक निवेश स्कीम चलानेवाली कंपनी की ओर से पश्चिम बंगाल में की गयी वित्तीय धोखाधड़ी के तौर पर यह घोटाला सामने आया था. यह कंपनी पोंजी स्कीम के माध्यम से लोगों से फर्जी तरीके से रकम निवेश करवा रही थी. इसी वर्ष अप्रैल में पता चला कि यह समूह लोगों की जमा रकम चुकाने में असमर्थ हो चुका है. इस समूह में 17 लाख से ज्यादा निवेशकों के द्वारा 200 से 300 करोड़ रुपये निवेश किये जाने का अनुमान लगाया गया था.


हेलीकॉप्टर घोटाला
इस वर्ष के आरंभ में, संसदीय जांच समिति ने इस हेलीकॉप्टर घोटाले को सामने लाने का काम किया. दरअसल, हेलीकॉप्टर बनानेवाली ऑगस्ता वेस्टलैंड नामक कंपनी से कुछ हेलीकॉप्टरों को खरीदने के लिए हुई डील में शामिल कई वरिष्ठ अधिकारियों ने अनियमितता बरती थी.
कुछ राजनेताओं और सैन्य अधिकारियों पर ऑगस्ता वेस्टलैंड नामक कंपनी से 12 हेलीकॉप्टर खरीदे जाने की एवज में घूस लेने का आरोप लगा था. मालूम हो कि इस सौदे में भारत की ओर से 55 करोड़ डॉलर का भुगतान करना तय किया गया था. आरोप लगाया गया कि इस सौदे को हासिल करने के लिए इस कंपनी ने भारतीय नेताओं और सैन्य अधिकारियों को घूस दी थी. बताया गया है कि इन हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल राष्ट्रपति और अन्य बड़ी हस्तियों के लिए किया जाना है.
सोलर पैनल घोटाला
इसी वर्ष केरल में एक सौर ऊर्जा कंपनी की ओर से यह घोटाला सामने आया है. इसमें मुख्यमंत्री कार्यालय के संबंधित राजनीतिज्ञ के संपर्क से सात करोड़ रुपये घूस दिये जाने का आरोप लगाया गया है. बताया गया है कि कंपनी के हितों के लिए घूस की यह रकम दी गयी. टीम सोलर एनर्जी नामक कंपनी के अधिकारियों ने कंपनी में साङोदार बनाने के नाम पर अनेक लोगों से गलत तरीके से रकम वसूली थी. इस मामले में इसी वर्ष कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया.

महारानी, राजकुमार के बाद अब नौकर को जिताओ: कुमार विश्वास

कुमार विश्वास, आम आदमी पार्टी
रविवार को अमेठी में एक रैली को दौरान आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास के ख़िलाफ़ नारे लगाए गए और काले झंडे दिखाए गए. इससे पहले अमेठी जाते समय उनके काफ़िले पर पत्थरबाजी की गई और काले झंडे दिखाए गए थे.
कुमार विश्वास ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहा, "राहुल गांधी हमारे नेता थे लेकिन उन्होंने दस साल में एक बार भी संसद में अमेठी का सवाल नहीं उठाया."

रैली से पहले प्रदर्शनकारियों ने कुमार विश्वास का पुतला भी फूँका था. प्रदर्शनकारी कथित तौर पर कुमार विश्वास की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले कविता से नाराज़ थे.कुमार विश्वास ने अमेटी की जनता से अपील करते हुए कहा, "आपने बहुत युवराज जिताए हैं, बहुत महाराज जिताए हैं, बहुत महारानी जिताई हैं, एक बार एक नौकर को जिताएँ."
प्रदर्शनकारियों ने विश्वास की रैली के लिए आम आदमी के समर्थकों को ला रही दो बसों पर अंडे और पत्थर फेंके थे.

आरोप प्रत्यारोप

विश्वास ने इस घटना को विरोधी दलों की हरकत बताते हुए कहा था कि विरोधी आम आदमी पार्टी के उभार से ख़तरा महसूस कर रहे हैं.
कुमार विश्वास अमेठी में एक जनसभा को संबोधित करने गए थे.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस नेता रीता बहुगुणा जोशी ने आज की घटना पर कहा "कुमार विश्वास कवि है लेकिन राजनीतिक मंच पा कर इस समय अहंकार से भर गए हैं. उनको अपने विवादास्पद बयानों के कारण विरोध का सामना करना पड़ रहा है ना कि कांग्रेस के कारण."
जोशी ने कहा कि अगर कुमार विश्वास मे दम हो तो वो जा कर किसी बाहुबली या पूंजीपति के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ें. राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ लड़ना महज़ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का तरीका है.
उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा "हम किसी से नहीं डरते हैं ना ही हम किसी के ख़िलाफ़ हैं. आप पार्टी के नेताओं को खुद सोचना होगा की क्यों उनका विरोध हो रहा है."
अमेठी से कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी सांसद हैं. कुमार विश्वास ने आगामी आम चुनावों में राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ अमेठी से चुनाव लड़नी की बात कही है. हालांकी आम आदमी पार्टी की तरफ़ से इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है.

शनिवार को लखनऊ में एक पत्रकार वार्ता के दौरान भी कुमार विश्वास पर अंडे फेंके गए थे.

कांग्रेस के चापलूस हैं लालू : मुलायम




 समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने मंगलवार को कांग्रेस के साथ-साथ राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि केंद्र की कांग्रेस सरकार डरपोक है। उसमें देश की समस्याओं से लड़ने का साहस नहीं है। देश की सीमाएं खतरे में हैं। मुलायम ने लालू का नाम लिए बगैर उन्हें कांग्रेस का चापलूस बताया।
पार्टी मुख्यालय में सपा राज नारायण की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में सपा प्रमुख ने महंगाई, भ्रष्टाचार व बेकारी के लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि कांग्रेस ने मुसलमानों को निराश और दुखी किया है। मुलायम बोले, कांग्रेस बेहद कमजोर हो गई है और समाप्तप्राय है। लालू का नाम लिए बगैर मुलायम ने उनके अंदाज की नकल करते हुए कहा कि एक नेता है, जो मसखरी करता रहता है और कोई भी उसे गंभीरता से नहीं लेता। इन दिनों यह नेता कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी की चाटुकारिता में लगा हुआ है।
मुलायम ने कहा कि नरेंद्र मोदी से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कुछ लाभ मिल सकता है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा में किसी को बहुमत नहीं मिलेगा और देश में तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी। सपा प्रमुख ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि वे निराश न हों। राज्यों में क्षेत्रीय दल जीत रहे हैं और सपा भी जीतेगी।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि अब सपा को अन्य प्रदेशों में भी फैलाना है। दुनिया समाजवाद की ओर लौट रही है। उन्होंने इस अवसर पर अपनी सरकार कर उपलब्धियां भी बताई। इस अवसर पर सपा के कई नेता और मंत्री भी मौजूद थे।

मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से किसका नुक़सान?

मुज़फ़्फ़रनगर में इस साल सितंबर में हुए दंगों ने पहले ही इलाक़े के साम्प्रदायिक सौहार्द को छलनी कर दिया था, लेकिन राजनीतिक दल अब भी उसकी आग में हाथ सेकने में लगे हुए हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई मानवीय संवेदनाओं को पीछे छोड़ चुकी है.

मुलायम एक ओर तो मुस्लिम वोट के लिए पुरज़ोर कोशिश में हैं और दूसरी ओर जाट वोट भी खोना नहीं चाहते. 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से केवल चार सीटें मिली थीं, जबकि बहुजन समाज पार्टी को सात, भाजपा और राष्ट्रीय लोकदल दोनों को पांच-पांच और कांग्रेस को केवल दो सीट मिली थीं.समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का यह कहना कि राहत कैंपों में अब क्लिक करेंकोई दंगा पीड़ित नहीं हैबल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के षड्यंत्रकारी समर्थक हैं, उसी वर्चस्व की लड़ाई का एक पहलू है.

जाट वोट की खातिर

2012 के विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र से जहाँ मुलायम सिंह के दल को 23.8 प्रतिशत वोट मिले थे, बहुजन समाज पार्टी को उससे कहीं अधिक 28.7 प्रतिशत वोट मिले.
ऐसा तब है जब इस क्षेत्र में मुसलमान मतदाता 15 से 45 प्रतिशत हैं और 'मौलाना' मुलायम उनके हितों के सबसे बड़े रक्षक.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता की बेरुखी देखते हुए ही समाजवादी पार्टी जाट (10 से 42 प्रतिशत) और अन्य पिछड़ी जाति (10 से 25 प्रतिशत) के मतदाता को जीतना चाहती है क्योंकि दलित जिनकी संख्या 15 से 30 प्रतिशत के बीच है, लगभग पूरी तरह मायावती के साथ हैं.
दंगा पीड़ितों के लिए यदि मुलायम को क्लिक करेंबहुत हमदर्दी नहीं है तो उसके पीछे जाट वोट को बचाना मुख्य उद्देश्य है. उनकी रणनीति साफ़ है- मुस्लिम मतदाता समझेगा कि भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता को केवल समाजवादी पार्टी ही रोक सकती है इसलिए वे थोड़ा आश्वस्त हैं.
दूसरी ओर क्योंकि दंगों के बाद क्षेत्र में भाजपा का पलड़ा निश्चित रूप से भारी हुआ है, मुलायम का ध्यान जाट वोट पर केंद्रित है.
जाट वोट के लिए भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की 111वीं जयंती को भी समाजवादी पार्टी ने उसी दृष्टिकोण से मनाया.
23 दिसंबर को एक समारोह में मुलायम ने वैसे तो अपने विधायकों और कार्यकर्ताओं को नसीहत दी कि वे गुंडागर्दी बंद करें, किन्तु वे चरण सिंह की प्रशंसा करना नहीं भूले. उसी दिन उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय लोकदल के कार्यकर्ताओं को चरण सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने से रोका.
20 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के महासचिव और मुलायम के छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर चरण सिंह को भारत रत्न की उपाधि देने की मांग की. उसी दिन पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने एक बयान में कहा कि राजनीतिक दृष्टिकोण से मुलायम सिंह चरण सिंह के ज्यादा नज़दीक थे. 18 दिसंबर को प्रदेश सरकार ने चरण सिंह के जन्मदिवस 23 दिसंबर को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया.

राजनीतिक बाज़ीगरी

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोट के लिए यह राजनीतिक बाजीगरी केवल मुलायम तक सीमित नहीं है. क्लिक करेंमुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगे चौधरी अजित सिंह के लिए भी उतने ही चिंताजनक हैं. संकल्प दिवस के रूप में मनाए गए 23 दिसंबर को राष्ट्रीय लोकदल ने मेरठ में एक जनसभा में अजित सिंह ने कहा, "यदि दोनों सम्प्रदायों के किसान एकजुट नहीं होते, तो आपकी पार्टी (राष्ट्रीय लोकदल) सत्ता में नहीं आ पाएगी."
उनकी चिंता वाजिब है. अभी तक उनकी पार्टी को दोनों ही संप्रदायों के वोट मिल रहे थे किन्तु दंगों की आंच उन्हें नुकसान पहुंचा सकती है. अजित सिंह को यह भी चिंता होगी कि वे हरित प्रदेश की मांग को अमली जामा पहनाने में असफल रहे हैं. उस दिशा में मायावती ने विधानसभा से हरित प्रदेश के गठन के लिए प्रस्ताव पारित करवाकर अजित सिंह को पीछे छोड़ दिया था.
इस पूरे प्रकरण में यह तो तय है कि भाजपा को सीधा फायदा होगा. मायावती, जो इस मामले में ज़्यादा बयानबाजी नहीं कर रही हैं, को भी उम्मीद है कि अबकी मुसलमान और दलित वोटर यहाँ सात से कहीं अधिक सीट दिलवाएगा.

राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष नहीं चाहते हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या कम हो. समाजवादी पार्टी उनके लिए उतना ही बड़ा खतरा है जितनी भाजपा. देखना है मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे किसको कितनी चोट पहुंचाते हैं.

राजनीति की नई संस्कृति

दिल्ली में आप की सरकार अस्तित्व में आ रही है। यह भारतीय राजनीति में नई संस्कृति की शुरुआत होगी। जब इस देश में राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से पोषित राजनीति को कड़वी हकीकत मान चुके थे आप ने दिखा दिया है कि ईमानदारी से इकट्ठा किए गए चंदे से चुनाव लड़ा भी जा सकता है और जीता भी। यही अपने आप में स्थापित दलों को झकझोरने के लिए काफी है। भ्रष्टाचारियों और अपराधियों में साठ-गांठ के कारण राजनीति पर अपराधियों का दबदबा कायम हो चुका है। आप ने एक ऐसा तंत्र विकसित किया, जिसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। अभी तक चुनाव लड़ने और सरकार के गठन के लिए तैयार होने तक में आप ने अनेक अभिनव किए हैं। ईमानदार उम्मीदवारों का चुनाव, चुनाव लड़ने के लिए वित्ता प्रबंधन, सरकार बनाने से पहले जनता से रायशुमारी, क्षेत्रवार घोषणापत्र जारी करना आदि अनेक मुद्दों से स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी ईमानदार राजनीति पर चल रही है। आप की चयन प्रक्रिया भी ऐसी है कि इसमें कोई अपराधी टिकेगा ही नहीं। अत: एक ही झटके में राजनीति को अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के चंगुल से मुक्त कराने के असंभव से दिखने वाले काम को आप ने आसानी से करके दिखा दिया है।
अब आप सरकार में आने के बाद स्थापित राजनीतिक संस्कृति को बदलने की तैयारी में है। आप के मंत्री लालबत्ताी वाली गाड़ियों, सुरक्षा, बंगले आदि सत्ता के प्रतीक चिन्हों से दूर रहेंगे। इससे न सिर्फ नेता व जनता के बीच की दूरी कम होगी, बल्कि बहुत सा अनावश्यक खर्च भी बचेगा। जन प्रतिनिधि सही अथरें में जनता का प्रतिनिधित्व करेंगे। जब नेता अपनी सुविधाओं को कम कर देंगे तभी तो वे नौकरशाहों से भी उनकी सुविधाओं को कम करने के लिए कह सकते हैं। यदि आप के नेता ईमानदारी से काम करते हैं तो विभिन्न विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना आसान हो जाएगा। अभी भ्रष्ट नेता के नाम पर छोटे कर्मचारी भी भ्रष्टाचार करते हैं, किंतु जब नेता घूस व कमीशन लेना बंद कर देंगे तो भ्रष्टाचार पर नीचे तक अंकुश लगेगा। इससे सबसे ज्यादा दिक्कत होगी नौकरशाहों को, जो सबसे च्यादा सुविधाओं का उपभोग करने के आदी हो गए हैं। उनके लिए गलत पैसा लेना बंद करना कष्टदायक होगा। पहली बार भारत में यह संभावना बनती दिख रही है कि विभिन्न सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार खत्म किया जा सकता है, दलाल संस्कृति से मुक्ति मिल सकती है, प्रशासन के काम में पूर्ण पारदर्शिता आ सकती है। भाजपा तो सिर्फ सुशासन की बात ही करती रही। उसने भी अंतत: राजनीति में टिके रहने के लिए कांग्रेस की ही भ्रष्ट संस्कृति की नकल की। पर आप यह काम करके दिखा सकती है क्योंकि इसका शीर्ष नेतृत्व अवसरवादी नहीं है और नैतिक मूल्यों में उसकी निष्ठा है।
यदि आप ने विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने में सफलता हासिल की तो जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ जाएगी। आम आदमी की सबसे अधिक रुचि स्थानीय मामलों में रहती है। अरविंद केजरीवाल का शुरुआती काम दिल्ली की गरीब बस्तियों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ था। उनकी साथी संतोष कोली, जिनका कुछ माह पहले देहांत हो गया, इसी संघर्ष से निकली एक जुझारू कार्यकर्ता थीं। इसी तरह पेंशन की योजनाओं को दुरुस्त करना और ठीक से क्त्रियान्वयन कराना, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की व्यवस्थाओं को पटरी पर लाना उनकी लोकप्रियता बढ़ा सकता है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू है, किंतु गरीब बच्चों को आरक्षण की व्यवस्था के तहत अच्छे विद्यालयों में दाखिला मिलने में काफी दिक्कत आ रही हैं। कायदे से तो आप को समान शिक्षा प्रणाली लागू कर देनी चाहिए, यानी हरेक बच्चे के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था। जो बंगले आप के मंत्रियों के न रहने से खाली रहेंगे उनमें विद्यालय या चिकित्सालय खोले जा सकते हैं। यदि हम हरेक बच्चे को विद्यालय भेज वाकई में कानून के अनुसार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था लागू करना चाहते हैं तो बहुत सारे विद्यालयों की जरूरत पड़ेगी। मंत्रियों और नौकरशाहों से मिलने के लिए जिन भवनों में उनके कार्यालय स्थित हैं वहां बिना पास के प्रवेश ही नहीं मिलता। इन जगहों पर जाने के लिए पास की अनिवार्यता खत्म कर देनी चाहिए। जब सुरक्षा खत्म की जा सकती है तो यह क्यों नहीं? नौकरशाह इसका कड़ा विरोध करेंगे, लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि वे जनता की सेवा के लिए नियुक्त हैं। जनता से दूरी बनाकर वे भला उसका कल्याण कैसे कर सकते हैं।
आप की सरकार का सबसे रोमांचकारी पक्ष होने वाला है जनता की भागीदारी से सभी निर्णय लेना। जब निर्णय बंद कमरों की जगह खुली बैठकों में होंगे तो उनके गलत होने की संभावना कम हो जाएगी। भ्रष्टाचार पर तो रोक लगेगी ही। जब निर्णय खुले में होंगे तो नेताओं और नौकरशाहों को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। चूंकि जनता आप के नेताओं व मंत्रियों पर पैनी नजर भी रखने वाली है इसलिए उनके लिए कोई गलत काम करना मुश्किल होगा। परंतु यदि कोई गलत करता भी है तो जनता उसे गलत काम करने नहीं देगी अन्यथा वह पार्टी से निकाल दिया जाएगा। दिल्ली में आप का शासन भारतीय राजनीति का अभिनव प्रयोग सिद्ध होने वाला है। इसकी सफलता की संभावनाएं काफी हैं क्योंकि इसे बहुत सोच-समझ कर किया जा रहा है। यह सिर्फ भावनाओं के आधार पर नहीं है। इसकी सफलता की इस देश के आम आदमी को काफी उम्मीदें हैं क्योंकि उसकी पीड़ा का इलाज इस नए प्रयोग में हो सकता है। उसे इसी बात से हर्ष हो रहा है कि उसके वोट के बल पर इस देश की सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था को बदला जा सकता है, जिसकी उम्मीद करना लोगों ने बंद कर दिया था।
[लेखक संदीप पांडे, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

विषमता का विकास और राजनीति

जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है।
कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है इसलिए इसमें वह चमक नहीं बची है जो लोगों में बेहतर भविष्य की आस जगा सके। जनता पिछले दो दशक में विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई गई विकास परियोजनाओं के हश्र देख चुकी है। इनकी बदौलत कोई एक दर्जन बड़े शहर मेट्रो-महानगरों में, छोटे शहर अपेक्षाकृत बड़े शहरों में और कस्बे छोटे नगरों में बदल गए हैं। सड़कें अनेक लेन वाली हो गई हैं और उन पर जगह-जगह विशाल फ्लाइओवर बन गए हैं। इन पर चौपहिया वाहनों की संख्या बढ़ती और रफ्तार तेजतर होती जा रही है। जगह-जगह बहुमंजिला इमारतों वाले आवास, शॉपिंग मॉल और मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स बनते जा रहे हैं। मेट्रो का एरिया फैलता जा रहा है। इनके अलावा और भी बहुत कुछ है जिसे विकास के गिनाया जा सकता है।

इसके बरक्स हजारों गांव उजड़े हैं, कृषियोग्य जमीन सिकुड़ती गई है। स्थानीय उद्योग-धंधे ठप हुए हैं जिससे बेकारी बढ़ी है। जो कल तक खेती या व्यवसाय करते थे, आज शहरों में सफेदपोश लोगों की सेवा कर पेट भर रहे हैं। सड़कें चौड़ी हुई हैं, मगर उन पर पैदल, साइकिल से या रिक्शे में चलने वाले लोगों के लिए जगह सिकुड़ती गई है। गगनचुंबी इमारतों के बरक्स झुग्गी-झोपड़ियों का विस्तार हुआ है। विकास की उल्लेखनीय उपलब्धियां बीस प्रतिशत से अधिक लोगों को लाभान्वित नहीं कर पाई हैं। इसीलिए अमर्त्य सेन मानते हैं, ‘गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। मैं उनसे सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है।’
पिछले बीस सालों में ‘फोर्ब्स’ की सूची के अनुसार विश्व के सर्वाधिक वैज्ञानिकों में भारत के भी कई लोग शामिल हुए हैं और देश में भी अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि उतनी ही तेजी से गरीबों की संख्या कम नहीं हुई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके  हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यकों को इस विकास से बहुत कम लाभ हुआ है। परिणामस्वरूप गैर-बराबरी बेइंतहा बढ़ी है।
ऐसा नहीं कि यह हकीकत राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं दे रही। पर वे इस विषमतावर्धक  विकास को सही राह पर लाने के लिए तैयार नहीं दिखाई देते। हों भी कैसे? उन्हें कोई रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। वह दिख सकता है अगर वे गांधी, आंबेडकर, लोहिया, मार्क्स जैसे लोकहितैषी दार्शनिकों की सुझाई राहों में से किसी एक को पकड़ें। लेकिन पंूजीवादी विकास के समर्थकों ने घोषित कर दिया कि विचारधाराओं का अंत हो गया है, और हमने उसे ज्यों का त्यों मान लिया है। अब हम विचार के नाम पर उन मुद्दों को सामने ला रहे हैं जिनका वास्तव में हमारे जीवन से कोई मतलब ही नहीं है, जैसे सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता आदि। इन मुद्दों को राजनीतिक दल ही उछाल रहे हैं और इन्हें देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की अस्मिता से जबर्दस्ती जोड़ कर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर रहे हैं ताकि जनमत को अपने पक्ष में कर चुनाव जीतते रहें।
अफसोस है, इस तरह के भ्रामक मुद्दों को जीवन मरण का प्रश्न बनाने में मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भी उनका साथ दे रहा है। यह देख कर हैरानी होती है कि वामपंथी और समाजवादी सोच वाले दल भी आर्थिक, सामाजिक समानता के अपने अहम मुद्दे को भुला कर सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए एकजुट होने की दिखावटी कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान विकास, जो वास्तव में पंूजीवाद का ही एक चमकीला मुखौटा है, चुनाव के इसी तरह के नाटक को पसंद करता है। इसमें लोकतंत्र बना रहता है, अधिकतर लोग विकास के लाभ से वंचित भी रहते हैं और कुछ लोग फायदा भी उठाते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में आंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को दिए गए उस चेतावनी भरे वक्तव्य को फिर से याद कर लेना देश की राजनीति के सूत्रधारों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है। आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम लोग जिस जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं उसमें हम सबको एक नागरिक एक वोट का अधिकार मिल जाएगा, लेकिन यह राजनीतिक समानता तब तक कोई विशिष्ट फलदायक साबित नहीं होगी जब तक हम सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक असमानता को पूरी तरह से मिटा नहीं देते। अगर हम ऐसा निकट भविष्य में नहीं कर पाते हैं तो विषमता-पीड़ित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है।
पिछले पैंसठ वर्षों में गैर-बराबरी कम होने की जगह बढ़ी है। लाखों किसानों का आत्महत्या कर लेना और देश के दो सौ से अधिक जिलों का नक्सलवाद के प्रभाव में चले जाना उस विस्फोटक स्थिति के आगमन की पूर्व सूचना है। जिन्हें देश और समाज की चिंता है उसी चेतावनी को बार-बार दुहरा रहे हैं। फिर भी इसे अनसुनी करके हम पिछले चुनावों की तरह विकास जैसे अमूर्त, सांप्रदायिकता जैसे अंध-भावनात्मक और राम मंदिर जैसे अस्मितावादी मुद्दों को ही उछाल कर चुनाव लड़ते और जीतते हैं। अगर हम चाहते हैं कि यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के लिए युग परिवर्तनकारी साबित हो तो हमें इसे शाइनिंग इंडिया बनाम बहुजन भारत की लड़ाई में बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि आज हम ऐसी भयावह विषमता के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें परंपरागत रूप से सुविधा संपन्न, विशेषाधिकार युक्त थोड़े-से लोगों ने शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार और सांस्कृतिक-शैक्षणिक क्षेत्र पर अस्सी-पचासी प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, वहीं बहुसंख्यक दलित-पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए मजबूर हैं।
यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें पार्टियां अधिकतर लोगों की बदहाली दूर करने के बजाय अमूर्त और भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दे रही हैं। विशाल वंचित वर्ग के सब्र का बांध न टूटे इसके लिए उन्हें कभी मामूली पेंशन, कभी मनरेगा तो कभी खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं के लॉलीपॉप देकर बहकाया जा रहा है। लोगों को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के बजाय उन्हें याचक और पराश्रयी बनाने की कोशिश हो रही है।
कांग्रेस पहले गरीबी हटाने की बात करती थी, फिर अपना हाथ गरीबों के साथ रखने का वादा करने लगी, अब पूरी रोटी खिलाने का राग जपने लगी है। उधर भाजपा ने कभी अंतिम जन के उत्थान की अंत्योदय योजना शुरू की थी लेकिन अब उसके पास ले-देकर राम मंदिर निर्माण के अलावा कोई मुद््दा नहीं बचा है। आश्चर्य है कोई राजनीतिक दल विकास परियोजनाओं से पैदा हो रही और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही विषमता को देखते हुए भी उसे दूर करने और समतामूलक समाज बनाने का झूठा-सच्चा संकल्प तक नहीं ले रहा है। सच है विकास की जिस राह पर हम इतनी दूर तक चले आए हैं वहां से वापस नहीं लौटा जा सकता, लेकिन गैरबराबरी के पैदा होने और निरंतर बढ़ते जाने के कारणों को तो खोजा जा सकता है ताकि उनका कोई निराकरण निकाला जा सके।
यों तो हम विकसित देशों जैसा बनने का सपना देखते हैं; इन देशों की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति के विभिन्न घटकों को आदर्श मानते हुए उन्हें अपनाने के लिए आतुर रहते हैं; लेकिन उनके बहुजन समावेशी समाज के मॉडल के बारे में कभी सोचते तक नहीं।
हमारा संविधान सब नागरिकों को समान अधिकार देता है। उस समानता को प्राप्त करना और बनाए रखना हर एक सरकार का प्रमुख कर्तव्य होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हर प्रकार के भेदभाव को दूर रखते हुए सब नागरिकों को देश की निर्माणकारी योजनाओं में बराबर की भागीदारी दी जाए। विश्व के वे लोकतंत्र, जो विकास और समृद्धि के स्पृहणीय मुकाम तक पहुंच चुके हैं, उनका इतिहास इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि उन्हें यह सफलता अपनी सारी जनता को साथ लेकर चलने से ही मिली है।
विविधताएं सब देशों में रही हैं लेकिन सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए उन्होंने अपने-अपने तरीके से ‘एफर्मेटिव एक्शन’ को अपनाकर सबको राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों से जोड़ा है। हमारे जैसे ही कुछ देश इसे यह कह कर नकारते हैं कि यह पश्चिमी या अमेरिकी अवधारणा है, मगर दरअसल यह विषमता को बनाए रखने का एक बहाना है। उनकी अन्य सब बातों का तो हम सहर्ष अनुकरण करते हैं, फिर इससे ही परहेज क्यों!
जब सरकारों का गठन होता है तो कोशिश यह रहती है कि हर वर्ग और क्षेत्र को प्रतिनिधित्व मिले। फिर हम सेना, न्यायालय, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तरों की नौकरियों में, सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के आपूर्ति-सौदों में, सड़क, भवन निर्माण आदि के ठेकों में, पार्किंग-परिवहन में, सरकारी और निजी स्कूलों-कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के संचालन, प्रवेश और शिक्षण में, एनजीओ, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, देवालयों के संचालन और पौरोहित्य कर्म में और सरकारी खरीदारी आदि में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सवर्णों को बराबर-बराबर हिस्सेदारी क्यों नहीं दे सकते? जातिवार जनगणना करके उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें भागीदार बनाया जा सकता है। इससे जनसंख्या का वह बड़ा हिस्सा जो उक्त क्षेत्रों में एक प्रकार से अनुपस्थित-सा है, सार्वजनिक उद्यम का अंग बन जाएगा और सब मिलकर देश की प्रगति में जब संलग्न होंगे तो सर्वसमावेशी और मानवीय चेहरे वाले विकास की अवधारणा साकार हो सकेगी।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीपीएल परिवारों को तीन रुपए किलो अनाज देने का वादा किया तो भाजपा ने इसे घटा कर दो रुपए कर दिया। क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इसी तरह के वादे किए, पर किसी ने समस्या की जड़ पर प्रहार करने के लिए सब वर्गों को विकास परियोजनाओं और अर्थोत्पादकसंसाधनों में उचित भागीदारी देने की बात नहीं की। इसका साफ मतलब है कि वर्तमान व्यवस्था असमानता को बनाए रखना चाहती है ताकि पंद्रह-बीस प्रतिशत सुविधासंपन्न लोगों का वर्चस्व बना रहे। ध्यान रहे यही वह वर्ग है जिसके संसाधनों से राजनीतिक दल चुनाव जीतते हैं और सरकार बनाते हैं। ऐसी सरकारें उन्हीं नीतियों का अनुसरण करती हैं जो इन वर्गों के हित में होती हैं और इन्हें फायदा पहुंचाती हैं। यह एक ऐसा कुलीन लोकतंत्र है जिसमें वंचित वर्गों के वोट का उपयोग संपन्न लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाता है।